Kanneda

‘Kaneda’ सीरीज़: ऊँचे सपने, मगर अधूरी सोच और भटकी हुई कहानी

“Kaneda”—यह आठ एपिसोड की सीरीज़ “Canada” को पंजाबी अंदाज़ में पुकारती है। कहानी प्रवासियों की उस हकीकत को उकेरती है, जहां कनेडा और कनाडा के बीच सिर्फ उच्चारण नहीं, बल्कि संस्कृतियों की खाई भी है।

1990 के दशक का वैंकूवर इसका मंच है, जहां नस्लभेद गहराई तक जड़ें जमा चुका है और पंजाबी समुदाय अब भी हाशिए पर है।

इस दुनिया का केंद्र है निर्मल ‘निम्मा’ चाहल (पर्मिश वर्मा)—जोश से भरा एक युवक, जिसकी राह सपनों से शुरू होकर हकीकत की कड़वी सच्चाइयों तक जा पहुंचती है।

निम्मा की कहानी जानी-पहचानी लग सकती है—ईमानदारी से शुरू होती है (रग्बी स्कॉलरशिप और संगीत का सपना), मगर सिस्टम पर से भरोसा उठते ही वह नशे और अपराध की दलदल में फंस जाता है।

फ्लैशबैक बताते हैं कि उसका परिवार 1984 के सिख विरोधी दंगों में पंजाब छोड़कर आया था, मगर उसका संघर्ष सिर्फ अतीत का साया नहीं—यह उसकी अपनी पहचान की जंग है।

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“कनेडा”—बिखरी हुई कहानी, अधूरा सिनेमा

“कनेडा” ऐसी लगती है जैसे इसे बिना किसी गहराई के जल्दबाजी में बना दिया गया हो। यह एक अधूरा खाका है, जिसमें फिल्म बनाने की बुनियादी समझ की कमी है।

अभिनय कहीं से भी स्वाभाविक नहीं लगता—संवाद जबरन बोले गए हैं, कैमरा एंगल अटपटे हैं, रोशनी असंतुलित है, और डबिंग अधूरी-सी महसूस होती है।

कहानी भी घिसी-पिटी और थकाऊ है। एक दृश्य में, एक पति किसी कहावत को समझाने की कोशिश करता है, लेकिन खुद ही उसमें उलझ जाता है। उसकी पत्नी झुंझलाकर कहती है, “इसीलिए मुझे किताबों और शब्दों का खेल समझ नहीं आता।” क्या उसकी नाराजगी जायज़ नहीं?

निम्मा को अपने दोस्त की बहन हरलीन से तभी प्यार हो जाता है जब वह कार की पिछली सीट पर कपड़े बदल रही होती है। बस एक झलक से ही उसका दिल मचल उठता है—क्या इससे ज्यादा सतही कोई प्रेम कहानी हो सकती है?

एक और अजीबोगरीब मोड़ में, निम्मा—जो अब ड्रग माफिया का हिस्सा है—मानव तस्करी को लेकर अपनी नैतिकता की सीमा तय करता है। जब उसका बॉस उसे ढोंगी कहता है, तो वह बड़ी गंभीरता से अपनी माँ की सीख दोहराता है।

चलती गाड़ियों में होने वाली बातचीत नकली ग्रीन-स्क्रीन बैकग्राउंड और असमान हवा के झोंकों से इतनी अजीब लगती है कि दृश्य पर ध्यान ही नहीं टिकता।

फिल्म की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह बहुत कुछ कहना चाहती है—प्रवासी सपनों का बिखरना, पुलिस के भीतर की उथल-पुथल, गैंग वॉर, सफेदपोश अपराध—लेकिन यह मूल बातें भी सही से नहीं कह पाती।

नतीजा? एक अधूरी, अस्त-व्यस्त और फीकी कहानी, जो जितना दिखाना चाहती है, उससे कहीं कम महसूस कराती है।

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कमजोर नींव पर खड़ा शो

हाल ही में कई बड़े बजट के स्ट्रीमिंग शोज़ गहरी कहानी गढ़ने में असफल रहे हैं। ऐसा लगता है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म अब टीवी सीरियल्स की तर्ज़ पर फॉर्मूला आधारित कंटेंट बनाने लगे हैं, जहाँ गहराई से ज्यादा दिखावा अहम हो गया है। (The Waking of a Nation भी इसी कमी का शिकार हुआ था।)

इस शो की सबसे बड़ी खामी इसकी पटकथा है, जो दिशा भटकाती है।

कहानी निम्मा की रैपिंग प्रतिभा और उसके संगीत करियर को उभारने की कोशिश करती है, लेकिन यह पहलू जल्दी ही धुंधला हो जाता है।

जैसे ही वह अपराध की दुनिया में गहराई से उतरता है, उसका कलाकार रूप पृष्ठभूमि में चला जाता है।

उसकी संगीत प्रतिभा बस एक अधूरी सोच बनकर रह जाती है—कहीं-कहीं बैकग्राउंड में कुछ बीट्स, अस्पताल में भर्ती होने पर लोगों के कुछ कथन—लेकिन उसके प्रभावशाली रैपर होने का कोई ठोस प्रमाण नहीं दिखता।

कभी-कभार दोस्तों के साथ जेम सेशंस और रिकॉर्ड लेबल के हल्के-फुल्के दृश्य किसी कलाकार की पहचान नहीं बना सकते।

अधूरी क़िस्मत, अधूरी कहानी

कनेडा एक ऐसी कहानी है जो कभी जरूरत से ज्यादा बोलती है, तो कभी पूरी तरह चुप हो जाती है।

कई दृश्य कमरे की चार दीवारों में कैद रहते हैं, और रोशनी हमेशा गलत कोण से पड़ती है।

निम्मा का जुर्म की दुनिया में कदम रखना—सरबजीत के गैंग का हिस्सा बनना और पंजाबी कार्टेल की चीनी व मैक्सिकन गिरोहों से टकराहट—एक रोमांचक पहलू हो सकता था।

यहाँ तक कि मैक्सिको मीटिंग के दौरान की गई पीली फ़्रेमिंग वाली घिसी-पिटी सिनेमैटोग्राफी भी नजरअंदाज की जा सकती थी।

लेकिन कहानी उसी पुराने ढर्रे पर चलती है—
निम्मा अपनी काबिलियत से जगह बनाता है, गैंग में ऊपर उठता है, जलन और धोखे का शिकार बनता है, ताकत के नशे में बहक जाता है, और फिर अपने ही उस्ताद के खिलाफ खड़ा हो जाता है।

उसकी कहानी एक पुलिसवाला सुना रहा है, जो इतना सबकुछ जानता है कि वह जासूस से ज्यादा किसी छायादार पीछा करने वाले शख्स की तरह लगता है।

एक वक्त ऐसा आता है जब निम्मा बुरी राह छोड़कर सही रास्ता चुनना चाहता है, मगर नशे और नैतिकता के बीच की लकीर इतनी धुंधली हो जाती है कि उसे खुद भी रास्ता नजर नहीं आता।

शो का अधूरा प्रोडक्शन Chamak (2023) की याद दिलाता है—एक ऐसी सीरीज़, जिसने अमर सिंह चमकीला की प्रेरणादायक कहानी को एक दिखावटी पंजाब की सतही परतों में खो दिया।

अब इसका दूसरा सीजन आने वाला है, जो यह साबित करता है कि कहानी कहने की गुणवत्ता अब प्राथमिकता में नहीं रही।

अरुणोदय सिंह: एक विलेन, जो खुद से ही टकराता है

अरुणोदय सिंह के अभिनय में हमेशा एक अलग गहराई रही है। वह उन खलनायकों में जान डाल देते हैं, जो अपनी ही शख्सियत से जूझते हैं।

कनेडा में वह सरबजीत के किरदार में बिल्कुल अलग अंदाज़ में दिखते हैं—एक ऐसा गैंगस्टर, जो अपनी ही दुनिया का मज़ा लेता है, अपनी मौजूदगी को लेकर ज़रा भी गंभीर नहीं होता, और हर सीन में बेफिक्र दिखाई देता है। यह वही स्टेज है, जहाँ कुछ साल पहले अक्षय खन्ना खड़े थे।

अरुणोदय को देखकर लगता है कि वह अपने किरदार के हर पहलू से खेल रहे हैं, जैसे उन्होंने ये काली काली आँखें (2022) में किया था।

शो में बाकी कलाकार उनकी सहजता के सामने फीके लगते हैं—
पर्मिश वर्मा निम्मा को ज़रूरत से ज़्यादा गुस्सैल दिखाने की कोशिश में खो जाते हैं, रणवीर शौरी का किरदार अपने अजीब लहजे में उलझा हुआ सा लगता है, और मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब का टूटा हुआ पुलिस अफसर वाला रोल बस एक रटारटाया किरदार बनकर रह जाता है।

कहानी इतनी जल्दबाज़ी में खत्म होती है कि लगता है जैसे कनेडा को किसी उड़ान में सवार होना हो!

अगर यह थोड़ा और खिंचता, तो शायद आ अब लौट चलें (1999) जैसी फिल्म बन जाता—जिसमें दक्षिण एशियाई प्रवासी संघर्ष को बॉलीवुड के रंग में रंग दिया गया था।

वैसे, अगर आ अब लौट चलें का रीमेक बने और उसमें अरुणोदय सिंह को अक्षय खन्ना का रोल मिले, तो मैं उसे देखने के लिए सबसे आगे खड़ा रहूंगा!

Ruchika

नमस्ते, मेरा नाम Ruchika है और मैं WebSeriesHub.com की संस्थापक हूं। मुझे वेब सीरीज और मूवीज का गहरा शौक है और मैं हमेशा नई फिल्मों और शो की जानकारी साझा करने के लिए तत्पर रहती हूं।

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