The Diplomat Review : 52 साल के जॉन अब्राहम अपने किरदारों में लगातार नए प्रयोग कर रहे हैं। कभी वह पठान में जिम बनकर एक स्टाइलिश विलेन के रूप में छा जाते हैं, तो कभी वेदा जैसी फिल्मों में जोखिम उठाकर अपने अभिनय को परखते हैं। हालांकि, हर प्रयोग सफल नहीं होता, लेकिन द डिप्लोमैट में उनका प्रदर्शन एक मजबूत वापसी की तरह लगता है। अगर उनकी पिछली राजनीतिक थ्रिलर मद्रास कैफे को एक बेंचमार्क मानें, तो यह फिल्म निश्चित रूप से फर्स्ट डिवीजन में पास होती है।
इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है इसका निर्देशन, और इसके लिए पूरा श्रेय जाता है शिवम नायर को। शिवम नायर उन निर्देशकों में से हैं जो अपने काम से जादू बिखेरते हैं, लेकिन खुद की ब्रांडिंग में उतने माहिर नहीं। उनकी वेब सीरीज स्पेशल ऑप्स में जो शानदार सिनेमेटिक ट्रीटमेंट दिखा था, वह द डिप्लोमैट में भी नजर आता है। इस बार भी उन्होंने एक सस्पेंस और इंटेलिजेंस से भरपूर दुनिया रच दी है, जहां हर सीन में तनाव और रहस्य गहराता चला जाता है।
जॉन अब्राहम इस बार सिर्फ अपनी मस्कुलर पर्सनालिटी के दम पर नहीं, बल्कि अपने संजीदा अभिनय से कहानी को आगे बढ़ाते हैं। द डिप्लोमैट उनके लिए एक नई पहचान गढ़ने का मौका है, और इसमें वह काफी हद तक सफल भी होते दिखते हैं।
जानी-पहचानी लेकिन असरदार कहानी
द डिप्लोमैट की कहानी कोई अनसुनी या चौंकाने वाली नहीं है। जो भी हिंदी सिनेमा का नियमित दर्शक है, उसे इसका मोटा-मोटा प्लॉट पहले से मालूम होगा। यह उन दिनों की बात है जब सुषमा स्वराज भारत की विदेश मंत्री थीं—एक ऐसी शख्सियत, जिनके लिए देश के किसी भी नागरिक की पुकार मायने रखती थी, चाहे वह दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हो। उनकी त्वरित प्रतिक्रियाएं और इंसानी जज्बात से भरी हुई कार्यशैली एक मिसाल थी।
फिल्म इस सच्ची घटना को सिनेमाई जामा पहनाती है, और इसके प्रचार के दौरान जॉन अब्राहम और शिवम नायर ने इसकी कहानी के कई पहलुओं को पहले ही उजागर कर दिया था। कहानी मलयेशिया में रहने वाली एक भारतीय महिला से शुरू होती है, जो अपने बीमार बच्चे के इलाज के लिए संघर्ष कर रही है। इस दौरान उसकी मुलाकात सोशल मीडिया पर एक पाकिस्तानी शख्स से होती है। प्यार का झांसा देकर वह उसे पाकिस्तान ले जाता है, लेकिन वहां पहुंचते ही हकीकत कुछ और ही निकलती है—यह एक बड़ा जाल है, जिससे बाहर निकलना आसान नहीं।
यहीं पर कहानी जे. पी. सिंह (जॉन अब्राहम) के इर्द-गिर्द घूमने लगती है। अब यह संघर्ष सिर्फ एक महिला की आज़ादी का नहीं, बल्कि कूटनीति, राजनीतिक दांव-पेंच और अंतरराष्ट्रीय संबंधों का भी बन जाता है। फिल्म का ट्रीटमेंट चाहे प्रेडिक्टेबल हो, लेकिन इसके किरदार और घटनाएं इसे रोमांचक बनाए रखते हैं।
Movie Review | द डिप्लोमैट |
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कलाकार | जॉन अब्राहम, सादिया खतीब, शारिब हाशमी, कुमुद मिश्रा, रेवती आदि |
लेखक | रितेश शाह |
निर्देशक | शिवम नायर |
निर्माता | भूषण कुमार, जॉन अब्राहम, समीर दीक्षित आदि |
रिलीज डेट | 14 मार्च 2024 |
जॉन की वापसी सही ट्रैक पर?
जॉन अब्राहम इस फिल्म में सिर्फ मुख्य अभिनेता ही नहीं, बल्कि निर्माता की भूमिका में भी हैं। संभवतः यह प्रोड्यूसर की उनकी हिस्सेदारी फीस के बदले की गई होगी, लेकिन इससे एक बात साफ होती है—वह अब सिर्फ एक्शन हीरो की छवि से आगे बढ़कर कंटेंट-ड्रिवन सिनेमा की ओर कदम बढ़ाना चाहते हैं।
पिछले कुछ सालों में, पठान को छोड़कर, जॉन की फिल्मों में वह करिश्मा देखने को नहीं मिला, जिसके लिए दर्शकों ने उन्हें पसंद किया था। लेकिन द डिप्लोमैट के साथ वह एक बार फिर अपनी जड़ें तलाशने की कोशिश करते नजर आते हैं। बाटला हाउस के बाद यह उनकी पहली फिल्म है, जिसमें वह गंभीर और संजीदा किरदार में फिट बैठते हैं।
यह फिल्म एक खास दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई है—ऐसे लोग जो सिर्फ मसाला फिल्मों से इतर सच्ची घटनाओं पर आधारित कंटेंट को तरजीह देते हैं। हालांकि, चूंकि इसमें पाकिस्तान को विलेन की तरह पेश नहीं किया गया है, इसलिए इसका बॉक्स ऑफिस पर बहुत बड़ा धमाका करने की संभावना कम है। लेकिन फिर भी, जॉन के करियर में यह एक संतुलित और प्रभावशाली फिल्म के रूप में जरूर दर्ज होगी।
जब-जब जॉन ने बिना ओवर-द-टॉप एक्शन और दिखावे के, सधी हुई परफॉर्मेंस दी है, उनके किरदारों ने खुद ही अपना प्रभाव छोड़ा है। इस बार भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है—संयमित अभिनय, दमदार स्क्रीन प्रेजेंस और एक गंभीर विषय को संजीदगी से निभाने की कोशिश।
शिवम नायर के निर्देशन की छाप
अगर इस फिल्म को देखने की कोई ठोस वजह है, तो वह है शिवम नायर का निर्देशन। उनके काम को इस फिल्म में पूरे सम्मान के साथ पासिंग मार्क्स दिए जा सकते हैं। यह साफ नजर आता है कि उन्होंने इस प्रोजेक्ट पर काफी सोच-विचार और गहरी तैयारी के साथ काम किया है। उन्होंने फिल्म को एक गंभीर, परिपक्व और वास्तविक टोन देने की पूरी कोशिश की है, जो काबिले-तारीफ है।
हालांकि, लेखन के मोर्चे पर फिल्म थोड़ी लड़खड़ा जाती है। रितेश शाह इन दिनों इतने ज्यादा प्रोजेक्ट्स में व्यस्त हैं कि उनकी लेखनी में दोहराव दिखने लगा है। खासकर भावुक दृश्यों में उनकी स्क्रिप्ट कमजोर पड़ जाती है। द डिप्लोमैट में यह कमी सादिया खतीब के किरदार के साथ साफ झलकती है। पाकिस्तान में फंसी उज्मा के अपने धोखेबाज प्रेमी के साथ जो दृश्य हैं, वे दर्शकों को गहराई से झकझोरने चाहिए थे, लेकिन फिल्म वह इमोशनल इम्पैक्ट नहीं बना पाती।
एक और कमी मानवीय भावनाओं और अंदरूनी संघर्ष को चित्रित करने में दिखती है। रितेश शाह ऐसे दृश्यों को गहराई से लिखते ही कम हैं, और जॉन अब्राहम के पास इस फिल्म में अपनी अभिनय क्षमता को ऐसे दृश्यों में उभारने के मौके और भी कम हैं। हालांकि, शिवम नायर ने अपने निर्देशन से फिल्म को जितना सम्भव हो सकता था, संभालने की पूरी कोशिश की है।
फिल्म की कमज़ोरियां: कहाँ रह गई ‘द डिप्लोमैट’ पीछे?
फिल्म द डिप्लोमैट कोई मास्टरपीस नहीं है, लेकिन यह एक अच्छी-खासी एंगेजिंग फिल्म जरूर है, जिसे आराम से घर पर बैठकर देखा जा सकता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि सिनेमाघरों में जाकर इसे देखने की कोई खास वजह आखिर क्या है? अफसोस की बात यह है कि फिल्म के निर्माताओं ने इसमें ऐसा कोई एलिमेंट नहीं जोड़ा जो इसे बड़े पर्दे पर देखने लायक बना सके।
तकनीकी रूप से फिल्म अच्छी है—पटकथा चुस्त है, संपादन में कुणाल वाल्वे की मेहनत झलकती है, और कुल मिलाकर फिल्म की लंबाई भी ठीक है (2 घंटे 17 मिनट)। लेकिन इसकी सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि इसमें कुछ भी नया महसूस नहीं होता। कहानी के हर मोड़ पर ऐसा लगता है कि यह सब पहले भी देखा-सुना जा चुका है। आज के दर्शकों को सरप्राइज़ चाहिए—कोई अनदेखा ट्विस्ट, जबरदस्त एक्शन, या कुछ ऐसा जो उन्हें चौंका दे। एनिमल और किल जैसी फिल्मों में हिंसा का अतिरेक दिखाया गया, स्त्री 2 जैसी फिल्मों में हॉरर-थ्रिल का तड़का लगा, और शैतान में माधवन को एक डार्क विलेन बनाकर दर्शकों को चौंकाया गया। लेकिन द डिप्लोमैट में ऐसा कोई तत्व नहीं है जो दर्शकों को रोमांचित कर सके।
जहां तक संगीत की बात है, तो इसमें भी फिल्म कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई। मनोज मुंतशिर का लिखा गाना भारत उनके पुराने लिखे हुए गानों का ही एक्सटेंशन लगता है, जबकि नैना और घर में अनुराग सैकिया की धुनें अच्छी हैं, लेकिन वे भी लंबे समय तक याद रहने वाली नहीं बन पाई हैं।
और फिर सबसे बड़ा झटका? फिल्म का डिजिटल वर्जन सिनेमाघरों में रिलीज होने से पहले ही टेलीग्राम जैसी साइट्स पर लीक हो चुका है, जो इसके बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन पर भारी असर डाल सकता है।